सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा के अरावली वन क्षेत्र में अतिक्रमण कर बसे खोरी गांव को खाली करवाने का निर्देश दिया है. इस संकट के समाधान के लिए ज़रूरी है कि एक संपूर्ण योजना बनाई जाए, जो वन संरक्षण और सामाजिक आवास- दोनों उद्देश्यों को पूरा करती हो.
मंजू मेनन | इशिता चटर्जी | मूल अंग्रेज़ी लेख से निधि अग्रवाल द्वारा अनूदित | द वायर

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अंश: विशाल शहरों, जहां ज़मीन की कीमतें उस शहर में रहने वाले अधिकांश लोगों की पहुंच से बाहर रखी जाती हैं, में बस्तियों को उजाड़ा नहीं जाना चाहिए. महामारी के दौरान निवासियों को बेदखल करना और उन्हें बेघर करना मानवाधिकारों का उल्लंघन करना है.
बिना पुनर्वास के बेदखल किया जाना उनके उचित आवास के अधिकार का उल्लंघन करता है. भारत में आर्थिक और सामाजिक असमानता की अभिव्यक्ति के रूप में शहरी बेदखली को संबोधित करने के लिए कार्यकर्ताओं ने कानूनी विधियों और लोकतांत्रिक राजनीति में सुधार के लिए बहुत मेहनत के साथ काम किया है.
अगर सरकार और अदालत खोरी गांव को वन संरक्षण के लिए उपलब्ध करवाना चाहते हैं, तो बस्ती के निवासियों को वैकल्पिक भूमि देना ही उचित होगा. लेकिन इस प्रकार की सहयोगात्मक प्रक्रिया को सफल होने के लिए राज्य सरकार को ज़बरदस्ती या दबाव का उपयोग करने से बचना होगा.
महामारी के दौरान किसी पर भी ऐसा करना घोर अन्याय है. गरीबों के घर उजाड़ने में दिखाई गई तात्कालिता अन्यायपूर्ण है. जैसा कि खोरी गांव की एक युवा निवासी ने पूछा, ‘क्या आप कुछ दिनों या हफ्तों में ही यहां जंगल उगा लोगे?’
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